Purnima - 1 in Hindi Short Stories by Soni shakya books and stories PDF | पुर्णिमा - भाग 1

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पुर्णिमा - भाग 1

मां _मां_ ओ __मां !!

देखो मेरा रिजल्ट पुरे 95 पर्सेंट मिले से मुझे।

मां मैं बहुत खुश हूं आज कहते हुए झुमने लगी पुर्णिमा ।

उसकी बातों में खनक और आंखों मे चमक थी।

आज वो सच में पुर्णिमा के चांद की तरह चमक रही थीं।

चंचल, चुलबुली सी वो। हमेशा खिलखिलाती रहती थी।

बड़ी बड़ी सागर जैसी आंखें,बुरे लम्बे कमर तक लटकते बाल,गोरा रंग, सुडोल बदन उसके नाम को सार्थक करता था।

अभी अभी तो योवन की दहलीज़ पर कदम रखा ही था कि उसकी सुन्दरता में मानो चार चांद और लग गए हो।

पर उसे कहा पता था कि __उसकी सुन्दरता उसका पढ़ाई करने का जुनून ही उसके दुश्मन बन जाएंगे।

उसने कल्पना भी नहीं कि थी कि जैसे पुर्णिमा को ग्रहण लगता है वैसा ही कुछ उसके साथ भी होने वाला है।

... आज फिर घर में उसकी आवाज गूंज रही थी.. मां ..मां ..ओ __मां...

सुन रही हो।

कितनी वेदना थी आज... उसकी आवाज में,

कितना दर्द था।

वो चिल्ला रही थी __मां  मां,,,

अगर शिक्षा के अन्धेरे में ही रखना था तो मेरा नाम पुर्णिमा क्यों रखा,, अमावस्या ही रख देती 

मां,,, मैं क्या मांग रही हुं बस,, पड़ना ही तो चाहती हुं।

इसमें क्या ग़लत है मां 

क्यों लगता है मां भाई को और पापा को कि मैं बिगड़ जाउगी अरे मां बिगड़ने वाले तो घर पर रहकर भी बिगड़ जाते हैं।

मां,,,में ऐसा कुछ नहीं करूंगी।

आप समझाओ न मां पापा को और भाई को 

मां,,,मैं वादा करती हूं कि मैं कुछ ग़लत नहीं करूंगी जैसा आप लोग कहोगे वैसा ही करूंगी ।

मां उस वक्त तो किसी ने कुछ नहीं कहा था जब भाई ने दुसरी समाज में साथी कर ली थी।

तब तो सबने सहज ही उन्हें स्वीकार कर लिया था।

एक सामाजिक भोज और बस..

सबने खुशी खुशी आशिर्वाद दे दिया 

वर -वघु को ।

फिर मेरी पड़ाई को लेकर इतना बवाल क्यों?

मैं तो बस पड़ना चाहती हुं,

बस... मुझे पड़ने दो

मां मैं पड़ना चाहती हुं पढ़-लिख कर कुछ बनना चाहती हुं।

अपने लिए आपके लिए सभी महिलाओं के लिए एक मिसाल बनना चाहती हुं ताकि उन्हें भी समझ आए कि महिलाऐं सिर्फ घर ही नहीं बहार भी काम कर सकती है। और दोनों को अच्छे से सम्भाल सकती है।

पुर्णिमा अपनी बात कहती जा रही थी पर... मां कोई जवाब नहीं दे रही थी।

पुर्णिमा फिर बोली __सुन रही हो न मां 

तुम कुछ कहती क्यों नहीं इतनी चुप क्यों हो

अपनी चुप्पी को तोड़ो मां आपकी चुप्पी से डर लग रहा है मुझे।

मां _मां _मां _मां ____

पर मां कुछ नहीं बोली 

पुर्णिमा चिखती रही चिल्लाती रही ,

चिल्लाते चिल्लाते उसकी आंखों से पानी निकलने लगा और आंसुओं के कारण उसकी ....

निन्दा खुल गई!

आंख खुलते ही उसने देखा...

मां कहीं नहीं थी।

उसने अपने आप को एक बन्द कमरे में पाया 

जिसके चारों ओर अंधेरा और सन्नाटा पसरा हुआ था ।

उसने अपने आप को बिस्तर से उठाने की कोशिश की,

कमजोर, बुझा सा शरीर मानो पीला पड़ गया था 

उसने जैसे तैसे अपने आप को उठाया और सामने लगे शीशे में अपने आप को निहारने लगी 

बिखरे बाल, उदास चेहरा 

मांग का सिन्दूर मानो जैसे जल रहा हो,

हाथों में चूड़ियां बोझ ही लग रही थी उसे

अपने ही आप से जैसे प्रश्न कर रही थी ,

क्या ये __वाही पुर्णिमा है ?

आज उसने सही मायनो में ,

धीरे धीरे ही सही पर....

पुर्णिमा को अमावस्या में बदलते देखा था।